Adhikaran Karak Saptami Vibhakti in Sanskrit
अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति) संस्कृत में | Adhikaran Karak in Sanskrit
शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है, उसे अधिकरण कारक कहते हैं। अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है। इसका विभक्ति-चिह्न ‘में, पर’ है।
उदाहरण – छात्रा: विद्यालये पठन्ति। छात्र विद्यालय में पढ़ते हैं। इस वाक्य में ‘विद्यालय में’ अधिकरण कारक है, इसलिए विद्यालय में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।
अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति) का सूत्र – ‘आधारोऽधिकरणम् सप्तम्यधिकरणे च।’
कर्ता और कर्म के द्वारा उनमे स्थित क्रिया के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं। अधिकरणकारक में सप्तमी विभक्ति होती है।
उदाहरण – वृक्षे काकः तिष्ठति। वृक्ष पर कौआ बैठा है। इस वाक्य में ‘वृक्षे’ में अधिकरण कारक है, इसलिए यहाँ सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।
(1) साध्वसाधु प्रयोगे च –
‘साधु’ तथा ‘असाधु’ शब्दों के प्रयोग में जिसके प्रति साधुता अथवा असाधुता प्रदर्शित की जाती है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-
साधुः कृष्णो मातरि। कृष्ण माता के प्रति अच्छा है।
असाधुः कृष्णो मातुले। कृष्ण मामा के प्रति बुरा है।
(2) यस्य च भावेन भावलक्षणम् –
जब एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया होती है, तब पूर्व क्रिया और उसके कर्ता में सप्तमी विभिक्ति होती है। जैसे-
गोषु दुह्यमानासु गतः। जब गाय दुही जा रही थी तब वह गया।
सूर्ये अस्तं गते सर्वे बालकाः स्वगृहम् अगच्छन्। सूर्य अस्त होने पर सभी बालक अपने घर चले गए।
(3) यतश्च निर्धारणम् –
जाति, गुण, क्रिया और संज्ञा आदि के द्वारा अनेक में से यदि किसी एक वस्तु की महत्ता बताई जाए तो वहाँ षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती हैं। जैसे-
गवां गोषु वा कृष्णा बहुक्षीरा। गायों में कृष्णा बहुत दूध वाली होती है।
छात्राणां छात्रेषु वा रमेशः पटुः। छात्रों में रमेश चतुर है।
जीवेषु मानवाः श्रेष्ठा:। जीवों में मानवलोग श्रेष्ठ हैं।
ऋषिषु वाल्मीकिः श्रेष्ठः। ऋषियों में वाल्मीकि श्रेष्ठ हैं।
(4) साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतेः –
साधु और निपुण शब्दों के योग में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-
निपुणो राज्ञो सेवकः। राजा का सेवक निपुण है।
(5) यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी –
जिससे अधिक हो और जिसका स्वामित्व कहा जाए उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-
उप परार्धे हरेर्गुणाः। हरि के गुण असंख्य हैं।
अधि भुवि रामः। राम भूमि के स्वामी हैं।
(6) अवच्छेदे सप्तमी –
शरीर के किसी भी अंग में यदि सप्तमी विभक्ति लगी रहती तो उसे ‘अवच्छेदे’ कहते हैं। जैसे-
करे गृहीत्वा कथितः। हाथ में लेकर कहा।
(7) निमित्तात् कर्मयोगे वा सम्प्रदाने सप्तमी या निमित्तार्थे सप्तमी –
क्रिया का कर्म मौजूद हो तो जिस प्रयोजन को लेकर काम किया जाता है, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-
चर्मणि द्विपिनं हन्ति। चमड़े के लिए चीते को मारता है।
(8) अध्वनि प्रथमा सप्तम्यौ –
यदि व्यवधान या दूरी का बोध होता हो तो मार्ग वाचक शब्द में प्रथमा और सप्तमी विभक्तियाँ होती हैं। जैसे-
जयपुरनगरम् दिल्लीत: बहुषु क्रोषेषु बहवः क्रोशाः वा स्थितम्। जयपुर नगर दिल्ली से कई कोस दूर स्थित है।
(9) कुशलनिपुणप्रविनपण्डितश्च योगे सप्तमी –
जिस कार्य में कोई व्यक्ति कुशल, निपुण, प्रवीण और पंडित हो, उसमें सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-
श्रीकृष्णः वंशीवादने प्रवीणः। श्रीकृष्ण वंशी बजाने में प्रवीण हैं ।
मम माता भोजनस्य पाचने कुशला। मेरी माता खाना बनाने में कुशल है।
भीमः गदाविद्यायां निपुणः आसीत्। भीम गदा विद्या मे निपुण थे।
राघवः संस्कृतव्याकरणे पण्डितः अस्ति। राघव संस्कृत व्याकरण में पंडित है।
(10) अभिलाषानुरागस्नेहासक्ति योगे सप्तमी –
जिसमें मनुष्य की अभिलाषा, अनुराग, स्नेह या आसक्ति हो, उसमें सप्तमी विभक्ति होती हैं। जैसे-
माता पुत्रे स्नियति। माता पुत्र को प्रेम करती है।
मम संस्कृतविषये आसक्तिः। मेरी संस्कृत विषय मे आसक्ति है।
कारक / विभक्ति के भेद –
सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)
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