Karm Karak Dwitya Vibhakti in Sanskrit
कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति) संस्कृत में | Karm Karak in Sanskrit
कर्त्ता अपनी क्रिया के द्वारा जिसको विशेष रूप से प्राप्त करना चाहता है, उसकी कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति आती है।
उदाहरण – सः हरिं भजति। वह हरि को भजता है। इस वाक्य में कर्ता वह का ईप्सिततम हरि है अर्थात् वह हरि को भजन चाहता है, इसलिए पूर्व सूत्र से हरि में कर्मसंज्ञा हुई और कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति) का सूत्र – ‘कर्तुरीप्सिततमं कर्म, कर्मणि द्वितीया।’
(1) अकथितं च –
अप्रधान या गौण कर्म को अकथित कर्म कहते हैं। सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण आदि कारकों की जहाँ अविवक्षा हो वहाँ उनकी कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। यह कर्म कभी अकेला प्रयुक्त नहीं होता, वरन् सदैव मुख्य कर्म के साथ ही प्रयुक्त होता है। संस्कृत भाषा में इस तरह की सोलह (16) धातुएँ हैं, उनके प्रयोग में एक तो मुख्य कर्म होता है और दूसरा अविवक्षित गौण कर्म होता है। इस गौण कर्म में भी द्वितीया विभक्ति होती है। ये धातुएँ ही द्विकर्मक धातुएँ कही जाती हैं। जो निम्नलिखित हैं –
दुह् (दुहना), याच् (माँगना), पच् (पकाना), दण्ड् (दण्ड देना), रुध् (रोकना, घेरना), प्रच्छ् (पूछना), चि (चुनना, चयन करना), ब्रू (कहना, बोलना), शास् (शासन करना), जि (जीतना), मथ् (मथना), मुष् (चुराना), नी (ले जाना), हृ (हरण करना), कृष् (खींचना), वह् (ढोकर ले जाना)। इन 16 धातुओं में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
1. दुह् (दुहना) – श्याम: गां दोग्धि। श्याम गाय से दूध दुहता है।
2. याच् (माँगना) – महेशः हरिं कलमं याचते। महेश हरि से कलम माँगता है।
3. पच् (पकाना) – रमा तण्डुलान् ओदनं पचति। रमा चावलों से भात पकाती है।
4. दण्ड् (दण्ड देना) – राजा सेवकं शतं दण्डयति। राजा सेवक को सौ रुपये का दण्ड देता है।
5. रुध् (रोकना, घेरना) – ग्वाल: व्रजं गामम् अवरुणद्धि। ग्वाला व्रज में गाय को रोकता है।
6. प्रच्छ् (पूछना) – अध्यापक: छात्रान् प्रश्नं पृच्छति। अध्यापक छात्रों से प्रश्न पूछता है।
7. चि (चुनना, चयन करना) – मालाकार: वृक्षं पुष्पं चिनोति। माली वृक्ष से पुष्प चुनता है।
8. ब्रू (कहना, बोलना) – गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते। गुरु शिष्य से धर्म कहता है।
9. शास् (शासन करना, कहना) – गुरु शिष्यं धर्मं शास्ति। गुरु शिष्य से धर्म कहता है।
10. जि (जीतना) – रविः महेशं शतं जयति। रवि महेश से सौ रुपये जीतता है।
11. मथ् (मथना) – देवाः क्षीरनिधिं सुधां मथ्नान्ति। देवता क्षीरसागर से अमृत मथते हैं।
12. मुष् (चुराना) – चौर: मोहनं धनं मुष्णाति। चोर मोहन से धन चुराता है।
13. नी (ले जाना) – अशोकः अश्वं ग्रामं नयति। अशोक घोड़े को गाँव ले जाता है।
14. हृ (हरण करना) – सः कृपणं धनं हरति। वह कंजूस के धन को हरता है।
15. कृष् (खींचना) – कृषक: क्षेत्रं वृषभं कर्षति। किसान खेत में बैल को खींचता है।
16. वह् (ढोकर ले जाना) – गर्दभः ग्रामं भारं वहति। गधा गाँव में बोझा ढोकर ले जाता है।
(2) अधिशीङ्स्थासां कर्म –
‘अधि’ उपसर्ग पूर्व शीङ् (सोना), स्था (ठहरना) एवं आस् (बैठना) धातुएँ आती हैं तो इनके आधार में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
विष्णुः समुद्रम् अधिशेते। विष्णु समुद्र में सोते हैं।
सः छात्रावासम् अधितिष्ठति। वह छात्रावास में ठहरता है।
शिवः कैलाशम् अध्यास्ते। शिव कैलाश पर बैठते हैं।
(3) अभितः परितः समया निकषा हा प्रतियोगेऽपि –
अभितः (सब ओर से), परितः (चारों ओर से), समया (निकट), निकषा (समीप), हा (धिक्कार या विपत्ति आने पर), प्रति (ओर) शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
नदीम् अभितः वृक्षाः सन्ति। नदी के दोनों ओर वृक्ष हैं।
ग्रामं परितः उद्यानानि सन्ति। गाँव के चारों ओर उद्यान हैं।
नगरं समया निकषा वा नद्यः सन्ति। नगर के निकट अथवा समीप नदी है।
हा दुर्जनम्। हाय दुष्ट।
दीनं प्रति दयां कुरु। गरीब के प्रति दया करो।
(4) प्रत्यनुधिङनिकषान्तरान्तरेणयावद्भिः –
प्रति (ओर), अनु (पीछे), धिक् (धिक्कार), निकषा (निकट), अन्तरा (बीच में), अन्तरेण (बिना), यावत् (तक) आदि शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
रामम् अनु सीता गच्छति। राम के पीछे सीता जाती है।
धिक् दुष्टं जनम् । दुष्ट व्यक्ति को धिक्कार है।
अन्तरा त्वां मां हरिः। तुम्हारे और मेरे बीच मे हरि हैं।
अन्तरेण हरिं न सुखम्। हरि के बिना सुख नहीं।
नगरं यावत् नदीम् अस्ति। नगर तक नदी है।
(5) उपान्वध्यावास –
उप, अनु, अधि, आङ् (आ) उपसर्गपूर्वक ‘वस्’ धातु के आधार की कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति लगती है। जैसे-
गोपालः नगरम् उपवसति। गोपाल नगर में रहता है।
श्यामः गृहम् अनुवसति। श्याम घर के पीछे रहता है।
विष्णुः वैकुण्ठम् अधिवसति। विष्णु बैकुण्ठ में रहते हैं।
हरि: वैकुण्ठम् आवसति। हरि बैकुण्ठ में रहते हैं।
(6) अभिनिविशश्च –
जब अधि और नि ये दोनो उपसर्ग विश् धातु में एक साथ लगते हैं तो इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
रमेशः सन्मार्गम् अभिनिविशते। रमेश सत्मार्ग में लगता है।
(7) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे –
समय और दूरी की निरन्तरता बताने वाले कालवाची और मार्गवाची (दूरीवाची) शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
क्रोशं कुटिला नदी। पूरे कोस तक नदी टेढ़ी है।
सा मासम् अधीते। वह महीने भर पढ़ता है।
(8) क्रियाविशेषणे द्वितीया –
क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-
पिकः मधुरं गायति। कोयल मधुर गाती है।
पवनः मन्दं-मन्दं वहति। हवा धीरे-धीरे बहती है।
कारक / विभक्ति के भेद –
सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)
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