करण कारक (तृतीया विभक्ति) संस्कृत में | Karan Karak in Sanskrit

जिसकी सहायता से कोई कार्य किया जाए, उसे करण कारक कहते हैं। करण कारक का विभक्ति-चिह्न ‘से, के द्वारा’ है। जैसे- बालकाः कन्दुकेन क्रीडन्ति बालक गेंद से खेल रहे हैं। इस वाक्य में कर्ता बालक गेंद की सहायता से खेल रहे हैं। इसलिए गेंद में करण कारक हुआ और करण कारक में तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।

Karan Karak Tritya Vibhakti in Sanskrit

करण कारक (तृतीया विभक्ति) का सूत्र – ‘साधकतमं करणम्, कर्तृकरणयोस्तृतीया।’

क्रिया की सिद्धि में जो सर्वाधिक सहायक कारक हो, उसकी करण संज्ञा (नाम) होती है और करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है। अनुक्त कर्ता अर्थात् कर्मवाच्य और भाववाच्य के कर्ता में तथा करण में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

मदनः कलमेन लिखति। मदन कलम से लिखता है। इस वाक्य में मदन कर्ता है और वह कलम की सहायता से लिख रहा है इसलिए कलम सहायक कारक है।

कर्मवाच्य में – शिशुना चन्द्रः दृश्यते। बच्चा चन्द्रमा को देखता है।

भाववाच्य में – तेन हस्यते। वह हँसता है।

(1) अपवर्गे तृतीया –

कार्य की समाप्ति या फल प्राप्ति के अर्थ में कालवाचक और मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

सः मासेन संस्कृतं शिक्षितम्। उसने महीने भर में संस्कृत सीख ली।

केशवः त्रिकोशेन उत्तररामचरितं पठितम्। केशव ने तीन कोस जाते-जाते उत्तररामचिरत पढ़ ली।

(2) सहयुक्तोऽप्रधाने –

सह, साकम्, समम् और सार्धम् शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

पिता पुत्रेण सह गच्छति। पिता पुत्र के साथ जाता है।

रमा गीतया साकं पठति। रमा गीता के साथ पढ़ती है।

गुरुः छात्रेण समं गतः। गुरु छात्र के साथ गया।

केशवः  स्वमित्रैः सार्धं क्रीडन्ति। केशव अपने मित्रों के साथ खेलता है।

(3) येनाङ्गविकार: –

अङ्गी के जिस विकृत अङ्ग से अङ्ग विकार लक्षित होता है उस विकृत अङ्ग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

सः कर्णेन बधिरः अस्ति। वह कान से बहरा है।

दीपकः पादेन खञ्जः अस्ति। दीपक पैर से लगड़ा है।

सूरदास: नेत्राभ्याम् अन्धः आसीत्। सूरदास आँखों से अन्धा था।

(4) इत्थंभूतलक्षणे –

जिस चिह्न से किसी का ज्ञान होता है उस चिह्नवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

सः जटाभि: तापस: प्रतीयते। वह जटाओं से तपस्वी प्रतीत होता है।

गोविन्दः पुस्तकैः छात्रः प्रतीयते। गोविन्द पुस्तकों से छात्र ज्ञात होता है।

(5) हेतौ –

हेतु अथवा कारण के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

विद्यया यश: वर्धते। विद्या से यश बढ़ता है।

पुण्येन प्रभु प्राप्यते। पुण्य से प्रभु मिलते हैं।

(6) पृथग्विनानानाभिस्तृतीयान्यतरस्याम् –

पृथक्, विना, नाना शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

जलेन विना मत्स्याः न जीवन्ति। जल के बिना मछलियाँ जीवित नहीं रहती।

(7) निषेधार्थक ‘अलम्’ –

अलम् शब्द के योग में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

अलं कलहेन। कलह मत करो।

(8) प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानाम् –

प्रकृति आदि क्रियाविशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

रविः प्रकृत्य साधुः अस्ति। रवि प्रकृति से सज्जन है।

श्यामः आकृत्या सुन्दर: अस्ति। श्याम आकृति से सुन्दर है।

(9) तुल्यार्थे तुलोपमाम्यां तृतीया –

किसी के साथ तुलना किये जाने के अर्थ में जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, उनमें तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

सीतायाः मुखं चंद्रेण तुल्यम् अस्ति। सीता का मुख चन्द्रमा के समान है।


कारक / विभक्ति के भेद –

कर्त्ता कारक (प्रथमा विभक्ति)

कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति)

करण कारक (तृतीया विभक्ति)

सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)

अपादान कारक (पंचमी विभक्ति)

संबंध (षष्ठी विभक्ति)

अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति)


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