सम्बन्ध (षष्ठी विभक्ति) संस्कृत में | Sambandh in Sanskrit

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप की वजह से एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध का पता चले, उसे संबंध कहते हैं। इसका विभक्ति-चिह्न ‘का, की, के, रा, री, रे’ है। इसकी विभक्तियाँ संज्ञा, लिंग और वचन के अनुसार बदल जाती हैं।

उदाहरण – इदं रामस्य पुस्तकम् अस्ति। यह राम की पुस्तक है। इस वाक्य में राम का संबन्ध पुस्तक से है, इसलिए राम में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।

Sambandh Shashthi Vibhakti in Sanskrit

सम्बन्ध (षष्ठी विभक्ति) का सूत्र – ‘षष्ठी शेषे’

शेषे का अर्थ है ‘बचा हुआ’ अर्थात् कर्तादि कारकों से बचा हुआ जो स्व और स्वामी आदि का सम्बन्ध है, वह शेष है। उस सम्बन्ध को प्रकट करने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।

उदाहरण – रामः दशरथस्य पुत्रः आसीत्। राम दशरथ के पुत्र थे। इस वाक्य में दशरथ का राम के साथ सम्बन्ध प्रकट हो रहा है, अतः यहाँ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है।

(1) षष्ठी हेतु प्रयोगे –

हेतु शब्द का प्रयोग करने पर प्रयोजनवाचक शब्द एवं हेतु शब्द, दोनों में ही षष्ठी विभक्ति आती है। जैसे-

सः अन्नस्य हेतोः वसति। वह अन्न के कारण रहता है।

(2) षष्ठ्यतसर्थप्रत्ययेन –

दिशावाची अतस् प्रत्यय तथा उसके अर्थ वाले प्रत्यय लगाकर बने शब्दों और पुरस्तात् (सामने), पश्चात् (पीछे), उपरिष्टात् (ऊपर की ओर) और अधस्तात् (नीचे की ओर) आदि शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

नगरस्य दक्षिणत: देवालयः अस्ति। नगर के दक्षिण की ओर मन्दिर है।

भूम्याः अधः जलम् अस्ति। भूमि के नीचे की ओर जल है।

(3) दूरान्तिकार्थैः षष्ठ्यन्तरस्याम् –

दूर और समीप अर्थ वाले शब्दों के योग में षष्ठी विभक्ति होती हैं। जैसे-

कूपः ग्रामस्य दूरम् अस्ति। कुआँ गाँव से दूर है।

गृहस्य निकटं पुस्तकालयः अस्ति। घर के निकट पुस्तकालय है।

(4) अधीगर्थदयेषां कर्मणि –

‘अधि’ उपसर्गपूर्वक ‘इ’ धातु (अधीक्) अर्थात् स्मरण अर्थ वाली धातु के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

भक्तः ईश्वरस्य स्मरति। भक्त ईश्वर को स्मरण करता है।

(5) दिवस्तदर्थस्य –

‘दिव्’ धातु का प्रयोग जुआ खेलने के अर्थ में होता है और उसके योग में भी कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

सः शतस्य दीव्यति। वह सौ का जुआ खेलता है।

(6) कर्तृकर्मणोः कृतिः –

कृदन्त शब्द अर्थात् जिनके अन्त में कृत् प्रत्यय तृच् (तृ), अच् (अ), घञ् (अ), ल्युट् (अन्), क्तिन् (ति), ण्वुल् (अक्) आदि रहते हैं। ऐसे शब्दों के कर्ता और कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

मेघदूतं कालिदासस्य कृतिः अस्ति। मेघदूत कालिदास की कृति है।

बालानां रोदनं बलम्। बच्चों का रोना ही बल है।

(7) क्तस्य च वर्तमाने –

भूतकालवाचक ‘क्त’ प्रत्ययान्त शब्द जब वर्तमान के अर्थ में प्रयुक्त होता है, तब षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

अहमेव मतो महीपतेः। राजा मुझे ही मानते हैं।

(8) तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यां तृतीयान्यतरस्याम् –

तुलनावाची शब्दों के योग में षष्ठी अथवा तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-

रमा गीतायाः (गीतया वा) तुल्या अस्ति। रमा गीता के समान है।

सत्यस्य (सत्येन) तुल्यं तपः नास्ति। सत्य के समान तप नहीं है।

(9) जासिनिप्रहणनाटक्राथपिषां हिंसायाम् –

हिंसार्थक जस्, नि, तथा उपसर्गपूर्वक हन्, क्रथ, नट् और पिस् धातुओं के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

राजा अपराधिन: प्रहन्तुं आदेशं ददाति। राजा अपराधी को मारने का आदेश देता है।

(10) कृत्यानां कर्तरि वा –

कृत्य प्रत्ययों के योग में कर्ता में विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है। जैसे-

मम सेव्यो हरिः। मेरे द्वारा हरि सेवनीय है।


कारक / विभक्ति के भेद –

कर्त्ता कारक (प्रथमा विभक्ति)

कर्म कारक (द्वितीया विभक्ति)

करण कारक (तृतीया विभक्ति)

सम्प्रदान कारक (चतुर्थी विभक्ति)

अपादान कारक (पंचमी विभक्ति)

संबंध (षष्ठी विभक्ति)

अधिकरण कारक (सप्तमी विभक्ति)


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